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  • av Pramila K. P.
    416,-

  • av Avadhesh Preet
    256,-

    Chand Ke Paar Ek Chabhi

  • av Aruna Roy & Tr Abhishek Shrivastava
    546,-

    ''ब्यावर की गलियों से उठकर राज्य की विधानसभा से होते हुए संसद के सदनों और उसके पार विकसित होते एक जनान्दोलन को मैंने बड़े उत्साह के साथ देखा है। यह पुस्तक, अपनी कहानी की तर्ज पर ही जनता के द्वारा और जनता के लिए है। मैं खुद को इस ताकतवर आन्दोलन के एक सदस्य के रूप में देखता हूँ।''कुलदीप नैयर, मूर्धन्य पत्रकार और मानवाधिकार कार्यकर्ता''यह कहानी हाथी के खिलाफ चींटियों की जंग की है। एम.के.एस.एस. ने चींटियों को संगठित कर के राज्य को जानने का अधिकार बनाने के लिए बाध्य कर डाला। गोपनीयता के नाम पर हाशिये के लोगों को हमेशा अपारदर्शी व सत्ता-केन्द्रित राज्य का शिकार बनाया गया लेकिन वह जमीन की ताकत ही थी जिसने संसद को यह कानून गठित करने को प्रेरित किया जैसा कि हमारे संविधान की प्रस्तावना में निहित है, यह राज्य 'वी द पीपल' (जनता) के प्रति जवाबदेह है। पारदर्शिता, समता और प्रतिष्ठा की लड़ाई आज भी जारी है..।'' बेजवाड़ा विल्सन, सफाई कर्मचारी आन्दोलन, मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित ''यह एक ऐसे कानून के जन्म और विकास का ब्योरा है जिसने इस राष्ट्र की विविधताओं और विरोधाभासों को साथ लेते हुए भारत की जनता के मानस पर ऐसी छाप छोड़ी है जैसा भारत का संविधान बनने से लेकर अब तक कोई कानून नहीं कर सका। इसे मुमकिन बनानेवाली माँगों और विचारों के केन्द्र में जो भी लोग रहे, उन्होंने इस परिघटना को याद करते हुए यहाँ दर्ज किया यह भारत के संविधान के विकास के अध्येताओं के लिए ही जरूरी पाठ नहीं है बल्कि उन सभी महत्त्वाकांक्षी लोगों के लिए अहम है जो इस संकटग्रस्त दुनिया के नागरिकों के लिए लोकतंत्र के सपने को वास्तव में साकार करना चाहते हैं।'' वजाहत हबीबुल्ला, पूर्व मुख्य सूचना आयुक्त, सीआईसी ''देश-भर के मजदूरों और किसानों के लिए न्याय व समता के प्रसार में बीते वर्षों के

  • av Sanjay Sahay
    470,-

  • av Mohandas Karamchand Gandhi
    600,-

    महात्मा गांधी की हत्या दिल्ली में उनके प्रार्थना-सभा में जाते हुए हुई थी। लेकिन इस पर कम ध्यान दिया गया है कि गांधी जी ने प्रार्थना-सभा के रूप में अपने समय और स्वतन्त्रता-संग्राम के दौरान एक अनोखी नैतिक-आध्यात्मिक और राजनैतिक संस्था का आविष्कार किया था। थोड़े आश्चर्य की बात यह है कि आज भी यानी गांधी जी के सेवाग्राम छोड़े ७० से अधिक बरसों बाद भी वहाँ हर दिन सुबह-शाम प्रार्थना-सभा होती है उसमें सभी धर्मों से पाठ होता है जिनमें हिन्दू, इस्लाम, ईसाइयत, बौद्ध, जैन, यहूदी, पारसी आदि शामिल हैं। दुनिया में, जहाँ धर्मों को लेकर इतनी हिंसा-दुराव-आतंक का माहौल है वहाँ कहीं और ऐसा धर्म-समभाव हर दिन नियमित रूप से होता हो, लगता या पता नहीं है।प्रार्थना-सभा में अन्त में गांधी जी बोलते थे। उनके अधिकांश विचार इसी अनौपचारिक रूप में व्यक्त होते थे। उनका वितान बहुत विस्तृत था। उन्हें दो खण्डों में प्रकाशित करना हमारे लिए गौरव की बात है। इसलिए भी रज़ा गांधी को भारत का बुद्ध के बाद दूसरा महामानव मानते थे।

  • av Kamleshdutt Tripathi
    516,-

    'अमरुशतकम्' संस्कृत काव्य का एक गौरव-ग्रन्थ है। उसमें ऐन्द्रियता और शृंगार की, प्रेम और रति की अपार सूक्ष्मताएँ और छबियाँ ऐसे अद्भुत काव्य-कौशल से उकेरी गयी हैं कि उनका मूल संस्कृत के अलावा हिन्दी अनुवाद में भी आस्वाद सम्भव है। यह संचयन एक बार फिर याद दिलाता है कि भारतीय शृंगार की परम्परा विश्व स्तर पर एक अनोखी परम्परा है जिसमें बखान, उन्मीलन, सांकेतिकता, अन्वय आदि के अनेक पक्ष कविता में सहज सम्भव होते रहे हैं। हम इस पुस्तक के पुनप्र्रकाशन से उस विरासत की ओर आधुनिक काव्य-रसिकों का ध्यान खींचने की चेष्टा कर रहे हैं।

  • av Gangaprasad Pandeya
    530,-

    "निराला हमारे उन कालजयी कवियों में से हैं जिनके जीवन और कृतित्व के बारे में जानने-समझने की हमारी जिज्ञासा लगातार बनी रहती है। 'महाप्राण निराला' बहुत पहले प्रकाशित हुई थी जिसमें महादेवी की प्रस्तावना है और स्वयं निराला की हस्तलिपि में उनकी एक टिप्पणी। पुस्तक में आत्मीय संस्मरण और आलोचना का मोहक और सार्थक समन्वय है। यह बरसों से अप्राप्य थी और हमें उसका पुनप्र्रकाशन करते हुए प्रसन्नता है कि उन पर पहली पुस्तकों में से एक हम फिर उपलब्ध करा पा रहे हैं। यह याद करना ज़रूरी है कि निराला को उनकी कठिन जि़न्दगी और जटिल कविता को समझने की कोशिश हिन्दी आलोचना काफी पहले से करती रही है।" -- अशोक वाजपेयी

  • av Udayan Vajpeyi
    416,-

    कमलेश अपनी पीढ़ी के सम्भवत सबसे पढ़े-लिखे कवि-चिन्तक थे। जितना ज्ञान उन्होंने संसार भर से अपने पास इकट्ठा किया था उसकी तुलना में उन्होंने लिखा कम। उनके पास ज्ञान-पगी दृष्टि थी जो उनकी मूलत कविदृष्टि को समृद्ध और विलक्षण बनाती थी। उनसे एक लम्बा संवाद और उनका एक निबन्ध इस पुस्तक में शामिल किया गया है जो इस माला के पहले सैट में इस विश्वास के साथ प्रकाशित की जा रही है कि उनके चिन्तन और गद्य की यह पुस्तक पाठकों को विचारोत्तेजक लगेगी। कमलेश में परम्परा की गहरी समझ और पैठ तथा आधुनिकता से प्रोत्साहित प्रश्नाकुलता में कोई दूरी नहीं है जो उन्हें एक अपवाद बनाती है।-अशोक वाजपेयीहिन्दी के सुप्रसिद्ध कवि, विचारक, अनुवादक और राजनीतिकर्ता अब दिवंगत इनके तीन कविता संग्रह, 'जरत्कारु', 'खुले में आवास' और 'बसाव' प्रकाशित हुए हैं। कमलेश जी की कविताओं में भारतीय परम्परा की समृद्धि के दर्शन को अनेक आलोचकों ने रेखांकित किया है। इन्होंने पाब्लो नेरूदा की प्रसिद्ध कविता 'माचू पिच्चू के शिखर' समेत अनेक कविताओं के अनुवाद किये हैं। कमलेश जी ने साहित्य और इतिहास आदि अनेक अनुशासनों की पुस्तकों पर विस्तार से लिखा है। अपने निधन से पहले कमलेश जी भारत की जाति-व्यवस्था आदि अनेक संस्थाओं को औपनिवेशिक विचारों के कुहासे से बाहर निकालकर सम्यक आलोक में देखने का महती प्रयत्न कर रहे थे।

  • av Ed Prabhudyal Meetal
    500,-

    Collection of poetry by 20th century Braj poets.

  • av Subhash Kashyap
    446,-

  • av Kedarnath Singh
    386,-

  • av Nandkishore Naval
    416,-

  • av Doodhnath Singh
    416,-

    एक अनाम कवि की कविताएँ गद्य में जिस यथार्थ को उसके भौतिक विवरणों में अंकित किया जाता है कविता उसे अक्सर उन बिम्बों से खोलती है जो उस यथार्थ को भोगते हुए मनुष्य के मन और जीवन में बूँद-बूँद संचित होते रहते हैं। यह जैसे सत्य को, उसकी सम्पूर्णता को दूसरे सिरे से पकड़ना है। विषय यहाँ भी वही ठोस यथार्थ और उसकी छवियाँ हैं लेकिन कवि की कविता उसे सीधे न देखकर उसके उपोत्पादों के आइनों में रखकर जाँचती है। जो भाषा में, शब्दों में, विभिन्न अर्थ-परम्पराओं और अवधारणाओं में आकर एक अमूर्त लेकिन कहीं ज्यादा प्रभावशाली सत्ता हासिल कर लेते हैं। मसलन इस संग्रह की कविता 'कामयाबी'। यह कामयाब आदमी को नहीं उसके उस पद को सम्बोधित है जो उसने हासिल किया है-कामयाबी। यहीं से कवि उस पूरी सामाजिक प्रक्रिया को खोलता है जिसका अर्थ इस शब्द में समाहित होकर हमारी चेतना का हिस्सा हो जाता है। और हम उसे नैतिक-अनैतिक के परे एक मूल्य के रूप में धारण कर लेते हैं। इस संग्रह में और भी ऐसी अनेक कविताएँ हैं जो समाज से नहीं उसके $फलसफ़े को सम्बोधित हैं, जिसे हम पहले धीरे-धीरे रचते हैं और फिर उसके सहारे जीना शुरू कर देते हैं। उसके बरक्स खड़ी है कविता, जो कवि के अपने एकान्त, अपने मूल्यों और मनुष्यता की अपनी बड़ी परिभाषा के साथ सृष्टि को बचाने-बढ़ाने की चिन्ता में व्यस्त है। संयोग नहीं कि 'भाषा', 'शब्द' और 'कविता' आदि शब्दों का प्रयोग यहाँ अनेक कविताओं में अनेक बार होता है। दरअसल यही वे हथियार हैं जो यथार्थ की अमूर्त व्याप्तियों का मु$काबला कर सकते हैं। 'शब्द की चमक और उसकी ताकत का $खयाल / चारों ओर की बेचारगी में / एक विस्मय था / ता$कत का इकट्ठा होते जाना / लोग जान गए थे / और वे अपने बचाव में / छिप रहे थे / हालाँकि शब्द उन्हें बाहर निकलने के लिए / पूरी ता$कत से दे रहे थे आवाज़। ये कविताएँ पाठक को

  • av Ashok Vajpeyi
    500,-

  • av V. K. Singh
    546,-

  • av Badri Narayan
    446,-

  • av Shamsurrahman Farooqui
    500,-

  • av Asghar Wajahat
    416,-

  • av Suman Keshari
    400,-

  • av Phanishwarnath Renu
    440,-

    पल्टू बाबू रोड' अमर कथाशिल्पी फनीश्वरनाथ रेणु का लघु उपन्यास है। यह उपन्यास पटना से प्रकाशित मासिक पत्रिका 'ज्योत्स्ना' के दिसंबर, 1959 से दिसंबर, 1960 के अंकों में धारावाहिक रूप से छपा था। रेणु के निधन के बाद 1979 में पुस्तकाकार प्रकाशित हुआ। नई-नई कथाभूमियो की खोज करनेवाले रेणु 'पल्टू बाबू रोड' में एक कस्बे को अपनी कथा का आधार बनाते हैं। वे कठोर, विकृत और हासोंमुख समाज को लेखकीय प्रखरता के साथ परखते है। इस उपन्यास में रेणु अपने गाँव-इलाके को छोड़कर बैरगाछी कस्बे को कथाभूमि बनाते हैं। इस कस्बे की नियति पल्टू बाबू जैसे काईयां, धूर्त, कामुक बूढ़े के हाथ में है। उसने कस्बे के लिए ऐसी राह निर्मित की है जिस पर राजनीतिज्ञ, ठेकेदार, व्यापारी, वकील (पूरे कस्बे के लोग ही) चल रहे हैं। लगता है, कस्बावासी शतरंज के मोहरे हैं और पल्टू बाबू इनके संचालक। इस उपन्यास का लक्ष्य है उच्च वर्ग के अंतर्विरोधों, उसकी गिरावट, राजनितिक और आर्थिक संबंधों में यों-व्यापर आदि का चित्रण। निम्न वर्ग छिटपुट आया है। आदर्शवादी पत्र विडम्बना से घिरे है। भाषा प्रव्पूर्ण और अर्थव्यंजक है।

  • av Matsuo Basho
    440,-

    जापानी महाकवि बाशो उन बिरले कवियों में से हैं जिनकी कविता का अनुवाद शायद संसार की हर छोटी-बड़ी भाषा में हुआ है। हाइकू नामक विधा का जि़क्र आते ही प्राय सभी रसिकों को जो पहला नाम याद आता है वह बाशो का है। बाशो जितने बड़े और अविराम कवि थे उतने ही अथक यात्री भी। उनका यह यात्रा-वृत्त अपने क़िस्म का अनोखा है। वरिष्ठ कवि सुरेश सलिल ने बहुत मनोयोग और कल्पनाशीलता से इसे अँग्रेज़ी से अनूदित किया है। उन्होंने बहुत जतन से यथास्थान सन्दर्भ के नोट्स भी दिये हैं जिनसे स्थानों, कवियों, राजवंशों आदि का पता भी होता चलता है। रज़ा पुस्तक माला में एक महाकवि का यात्रा-वृत्त बहुत अच्छे हिन्दी अनुवाद में प्रस्तुत करते हुए हमें प्रसन्नता है।' अशोक वाजपेयी.

  • av Shyam Manohar
    530,-

    'मराठी की रंगपरम्परा बहुत समृद्ध और सजीव रही है और उसका प्रभाव हिन्दी पर भी पड़ा है। मराठी और हिन्दी के बीच रंगमंच और नाटक के क्षेत्र में लगातार आदान-प्रदान होता रहा है। मराठी के प्राय सभी बड़े आधुनिक नाटककारों के नाटक हिन्दी में अनूदित हुए और अनेक निर्देशकों द्वारा कई शहरों में खेले जाते रहे हैं। श्याम मनोहर के चार नाटक मराठी-हिन्दी के विद्वान् निशिकान्त ठकार द्वारा अनूदित होकर यहाँ पहली बार हिन्दी में प्रकाशित हो रहे हैं। रज़ा पुस्तक माला के अन्र्तगत अन्य भारतीय भाषाओं से अच्छी और प्रासंगिक सामग्री हिन्दी में लाने के हमारे प्रयत्न का यह हिस्सा है।.

  • av Kunwar Narain
    440,-

    सब इतना असमाप्त' अपने शीर्षक से ही संग्रह की अन्तर्वस्तु का आभास देता है। इसकी अधिकांश कविताएँ वर्ष 2010 के बाद लिखी गई हैं। यहाँ कुछ अन्य काव्य-प्रयोग भी शामिल हैं जो कविता और उसकी एक बड़ी दुनिया में कवि की निरन्तर आवाजाही के प्रमाण हैं। कुँवर नारायण ने किसी भी $कीमत पर कविता की भूमिका को सीमित करके नहीं देखा। उन्होंने अपनी एक कविता में प्रतीकात्मक लहजे में कहा है कि मैं कभी भी अपनी कविताओं का अन्त नहीं लाना चाहता। उस जीवन्त नाते को बनाए रखना चाहता हूँ जिसे अन्त समाप्त कर देता है। वे हमेशा अनन्तिम कविताएँ लिखना चाहते थे, इसलिए अन्तहीन भी। प्रस्तुत संग्रह की कविताएँ अपने आप में उनकी इस चिन्ता को मूर्त करती हैं और इस तरह अन्त और आरम्भ की एक व्यापक और परस्पर अभिन्न परिकल्पना हमारे सामने रखती हैं। संग्रह की कविताएँ बहुत अनोखे ढंग से बैचैन करती हैं और आश्वस्त भी। इनमें एक बड़े कवि के समस्त अनुभवों की काव्यात्मक फलश्रुति है और अक्सर एक भव्य उदासी का गूँजता हुआ स्वर। यहाँ कुछ भूली-बिसरी यादों का कोलाज है और अप्रत्याशित विडम्बनाओं की ओर लुढ़कते हुए समाज की चिन्ता भी। पूरे संग्रह में सागर के दो तटों की तरह जीवन और मृत्यु के विविध अनुभवों-आहटों की कविताएँ एक सायुज्य में हैं। हिन्दी के शीर्षस्थ कवि कुँवर नारायण ने अपनी कृतियों के माध्यम से एक पूरा अलग 'पैराडाइमÓ रचा है। इसी क्रम में प्रस्तुत संग्रह की कविताएँ एक नए रूप में उनकी उपस्थिति को सम्भव बनाती हैं। इसमें उनकी काव्य-यात्रा भौतिक-अभौतिक, नैतिक-अनैतिक, लौटना-जाना, अन्त और आरम्भ, जिजीविषा और मुमुक्षा की परस्पर यात्रा रही है। पूरे संग्रह में यह संवेदनशीलता क्रमश बहुआयामी विस्तार पाती गई है और कुँवर नारायण का एक बेहद सघन और अनुभव-समृद्ध काव्य-संसार पाठकों के सामने खुलता

  • av Ed Surendra Dubey
    546,-

    यह कोई इतिहास ग्रन्थ नहीं है, किन्तु इसे पढक़र बुन्देलखण्ड, विशेषकर झाँसी को जाना जा सकता है। झाँसी के इतिहास, साहित्य, संस्कृति, कला, उद्योग धंधे, समाज, अर्थव्यवस्था आदि के अनेक पहलू ऐसे हैं, जो किसी लिखित दस्तावेज में उपलब्ध नहीं हैं, लोकमन में हैं। उन्हें समेटकर संकलित करना ही हमारा लक्ष्य रहा है जिसकी कोशिश हमने की है। लोकमन ने इतिहास से इतर अपने लिए प्रेरक सांस्कृतिक तत्त्वों-साहित्य, संगीत, कला आदि को अपनी स्मृति का हिस्सा बनाया। राजा लड़ते रहे, साम्राज्य बढ़ते-सिकुड़ते और बदलते रहे, किन्तु हमारी संस्कृति ज्यों की त्यों अक्षुण्ण रही और इसीलिए वह लोक स्मृतियों में जीवित भी रही। इस पुस्तक के लेखकों ने झाँसी से जुड़ा जो भी वृत्त-पुरावृत्त प्रस्तुत किया है, उसे कतिपय काट-छाँट के बाद जस का तस प्रस्तुत किया गया है। लेखकों द्वारा उपलब्ध प्रामाणिकता के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं की गई है। लेखकों ने अपनी सोच और दृष्टि से सँवारकर जो भी तथ्य उपलब्ध कराए हैं, वे इस संग्रह में मूल रूप में प्रकाशित हैं। पश्चिमी सोच से निर्मित मन के लिए 'मेरी झाँसी' उपयोगी हो न हो, भारतीय सोच से निर्मित मन के लिए अवश्य उपयोगी होगी। बुन्देलखण्ड, विशेषकर झाँसी का अतीत और वर्तमान निश्चित ही पाठकों को ऐतिहासिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक आदि दृष्टि से उर्वर धरती के विभिन्न पहलुओं से अवगत तो कराएगा ही, रचनात्मक भी बनाने में अपनी भूमिका निभाएगा, ऐसा हमारा विश्वास है।

  • av Kunwar Narain
    630,-

    कुँवर नारायण हमारे समय के बड़े कवि हैं। यदि विश्व के कुछ चुनिन्दा कवियों की तालिका बनाई जाए तो उसमें निस्सन्देह उनका स्थान होगा। वे आधुनिक बोध और संवेदना के उन कवियों में हैं जिन्होंने सदैव कविता को मनुष्यता के आभरण के रूप में लिया है। कुँवर नारायण का काव्य मानवीय गुणों का ही नहीं, मानवीय संस्कारों का काव्य है। कविता में उनका प्रवेश चक्रव्यूह से हुआ। अपने गठन में कलात्मक किन्तु दार्शनिक प्रतीतियों वाले इस संग्रह में जीवन की पेचीदगियों को कवि ने सलीके से उठाया है। आत्मजयी की लगभग अधसदी के बाद वाजश्रवा के बहाने की रचना बतौर कुँवर नारायण यह भी जताने के लिए है कि यदि आत्मजयी में मृत्यु की ओर से जीवन को देखा गया है तो वाजश्रवा के बहाने में जीवन की ओर से मृत्यु को देखने की एक कोशिश है। उनके इस कथन को हम इस रोशनी में देख सकते हैं कि सारा कुछ हमारे देखने के तरीके पर निर्भर है-कुछ ऐसे कि यह जीवन विवेक भी एक श्लोक की तरह सुगठित और अकाट्य हो। उनके रचना-संसार पर समय-समय पर लिखा जाता रहा है। अनेक शोधार्थियों ने उनके व्यक्तित्व और साहित्य पर कार्य किया है। कहना न होगा कि कुँवर नारायण का कृतित्व बहुवस्तुस्पर्शी है। वर्ष 2002 से पहले तक उनके व्यक्तित्व एवं कृतियों पर लिखे महत्त्वपूर्ण लेख उपस्थिति नामक संचयन में समाविष्ट हैं। उसके पश्चात् लिखे निबन्धों का यह संकलन दो खंडों में है अन्वय और अन्विति। अन्विति उनकी कृतियों को केन्द्र में रखकर लिखे आलोचनात्मक निबन्धों का चयन है। इसमें हाल की कुछ प्रकाशित कृतियों को छोडक़र बाकी कृतियों पर लिखे लेखों को शामिल किया गया है जो उपस्थिति में सम्मिलित नहीं हैं। अधिकांश लेख 2015 तक के हैं जब कुँवर नारायण का प्रबन्ध-काव्य कुमारजीव प्रकाशित हुआ। आशा है, पाठकों को ये दोनों खंड उपयोगी और प्रासंगिक ल

  • av Howard Zinn
    480,-

    इतिहासकार, विचारक और विश्व-प्रसिद्ध युद्ध-विरोधी लेखक हॉवर्ड जि़न के ये नाटक ऐतिहासिक भी हैं और वैचारिक भी। जि़न अपने आपको कुछ समाजवादी, कुछ अराजकतावादी और कुछ-कुछ लोकतांत्रिक समाजवादी मानते थे। युद्ध के विरोध में उन्होंने व्यापक रूप में लिखा और चर्चित हुए। उन्हें जनता का इतिहास-लेखक कहा गया। उन्होंने अमरीका का इतिहास लोगों को केन्द्र में रखकर लिखा जिसे असंख्य लोगों ने पढ़ा। वे सिर्फ इतिहासकार ही नहीं, एक्टिविस्ट भी थे। उनके ये तीनों नाटक उनके वैचारिक पक्ष के साथ-साथ उनके सिद्ध नाटककार होने को भी रेखांकित करते हैं। 'सोहो में मार्क्स' एकपात्रीय नाटक है जिसमें माक्र्स स्वयं मंच पर आकर दर्शकों को सम्बोधित करते हैं। दुनिया-भर में अनेक बार खेला गया यह नाटक आज के दौर में मार्क्स और उनके सिद्धान्तों की प्रासंगिकता बताता है। इसमें हमें मार्क्स के निजी जीवन के कुछ दृश्य भी मिलते हैं और साथ ही उनके समकालीनों के साथ उनके सम्बन्धों के भी। 'वीनस की बेटी' राष्ट्र के नाम पर लड़े जानेवाले युद्धों और उनके लिए बनाए जानेवाले हथियारों के औचित्य पर सवाल उठाता है। परमाणु अस्त्रों पर काम करनेवाले एक वैज्ञानिक की पत्नी, बेटी और बेटे के आपसी रिश्तों और बहसों के माध्यम से जि़न यहाँ युद्ध और शस्त्रों की व्यर्थता को एक साधारण, घरेलू नज़रिए से बेपर्दा करते हैं। 'एमा' अमरीका की अराजकतावादी चिन्तक, राजनीतिक कार्यकर्ता और लेखक एमा गोल्डमन के जीवन पर आधारित नाटक है जिसमें हॉवर्ड जि़न ने उनके जीवन की मुख्य घटनाओं और उनके विचारों को प्रस्तुत किया है। एमा का जन्म रूस में हुआ था। बाद में उन्होंने अमरीका में जन-आन्दोलनों के साथ काम किया। स्त्री-मुक्ति और मज़दूर हितों पर उनके वक्तव्यों को हज़ारों लोग सुनने आते थे। नाटक में ऐसे कई लोमहर्षक दृश्

  • av Suryakant Tripathi 'Nirala'
    530,-

  • av Kamlesh
    530,-

    कलाओं में भारतीय आधुनिकता के एक मूर्धन्य सैयद हैदर रज़ा एक अथक और अनोखे चित्रकार तो थे ही उनकी अन्य कलाओं में भी गहरी दिलचस्पी थी। विशेषत कविता और विचार में। वे हिन्दी को अपनी मातृभाषा मानते थे और हालाँकि उनका फ्रेंच और अँग्रेज़ी का ज्ञान और उन पर अधिकार गहरा था, वे, फ्रांस में साठ वर्ष बिताने के बाद भी, हिन्दी में रमे रहे। यह आकस्मिक नहीं है कि अपने कला-जीवन के उत्तराद्र्ध में उनके सभी चित्रों के शीर्षक हिन्दी में होते थे। वे संसार के श्रेष्ठ चित्रकारों में, २०-२१वीं सदियों में, शायद अकेले हैं जिन्होंने अपने सौ से अधिक चित्रों में देवनागरी में संस्कृत, हिन्दी और उर्दू कविता में पंक्तियाँ अंकित कीं। बरसों तक मैं जब उनके साथ कुछ समय पेरिस में बिताने जाता था तो उनके इसरार पर अपने साथ नवप्रकाशित हिन्दी कविता की पुस्तकें ले जाता था उनके पुस्तक-संग्रह में, जो अब दिल्ली स्थित रज़ा अभिलेखागार का एक हिस्सा है, हिन्दी कविता का एक बड़ा संग्रह शामिल था। रज़ा की एक चिन्ता यह भी थी कि हिन्दी में कई विषयों में अच्छी पुस्तकों की कमी है। विशेषत कलाओं और विचार आदि को लेकर। वे चाहते थे कि हमें कुछ पहल करना चाहिये। २०१६ में साढ़े चौरानवे वर्ष की आयु में उनकी मृत्यु के बाद रज़ा $फाउण्डेशन ने उनकी इच्छा का सम्मान करते हुए हिन्दी में कुछ नये $िकस्म की पुस्तकें प्रकाशित करने की पहल रज़ा पुस्तक माला के रूप में की है, जिनमें कुछ अप्राप्य पूर्व प्रकाशित पुस्तकों का पुनर्प्रकाशन भी शामिल है। उनमें गांधी, संस्कृति-चिन्तन, संवाद, भारतीय भाषाओं से विशेषत कला-चिन्तन के हिन्दी अनुवाद, कविता आदि की पुस्तकें शामिल की जा रही हैं। -आमुख से ''कवि कमलेश हमारे समय के सबसे पढ़े-लिखे व्यक्ति थे हालाँकि उन्होंने कभी विद्वता का कोई दावा नहीं किया। उनकी रुचि

  • av Kunwar Narain
    586,-

    कुँवर नारायण ने लगभग सात दशकों का समृद्ध साहित्यिक जीवन जिया है। वे विश्व के श्रेष्ठ कवियों में गिने जाते हैं। उनके रचना-संसार पर समय-समय पर लिखा जाता रहा है तथा अनेक मर्मज्ञ लेखकों, कवियों एवं शोधार्थियों ने उनके व्यक्तित्व और साहित्य पर कार्य किया है। उन पर अनेक ग्रन्थ लिखे व सम्पादित किए गए हैं और देशी-विदेशी संचयनों में उनकी कविताएँ शामिल हैं। अनेक भाषाओं में उनकी कृतियों के अनुवाद हुए हैं। उन्होंने अपनी कविता-यात्रा में हमें कई नायाब संग्रह दिए हैं। जहाँ उनकी कविताएँ स्मृति और परम्परा से सम्पन्न हैं, वहीं उनकी कहानियाँ किस्सागो के रूप में उनके अलग मिज़ाज की बानगी देती हैं। एक समालोचक और गद्यकार के रूप में उनकी आलोचना, निबन्ध, डायरी, सिने-विवेचन और भेंटवार्ताओं की पुस्तकें साहित्य, कला, जीवन, समाज, राजनीति और संस्कृति पर उनके सारभूत चिन्तन की विरल उदाहरण हैं। विश्व कवियों के उनके अनुवाद काव्यानुवाद कौशल के परिचायक हैं। वे उच्च काव्यादर्श के कवि हैं जिसका पूर्ण परिपाक उनके प्रबन्ध काव्यों में देखने को मिलता है। ऐसे उच्चादर्शों के लिए वे अतीत, इतिहास और मिथक के पास जाते हैं जिनसे रूबरू होते हुए हम अपने समय का एक आधुनिक प्रतिबिम्ब देख पाते हैं। उनकी कविता इसी सदाशयता की कविता है। बिना शोरोगुल के कविता में वह ऐसी शहदीली मिठास पैदा कर देते हैं कि उसे पढ़ते ही सृष्टि से प्यार हो उठे। कुँवर नारायण जितने अच्छे कवि, आलोचक और चिन्तक हैं, उतने ही अच्छे मनुष्य। उनसे मिलते हुए कभी उनके व्यक्तित्व का आतंक नहीं महसूस होता, अपने व्यक्तित्व की लघुता नहीं महसूस होती। उनके व्यक्तित्व और रचना-संसार पर हमारे समय के सुधी चिन्तकों और साहित्यिकों के आकलन का यह खंड उन पर लिखी गई समालोचना का एक श्रेष्ठ उपहार है। उन पर लिखे आलोचना

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