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Sahir Samagra

Om Sahir Samagra

यह किताब उनकी रचनाओं का समग्र है, अभी तक उपलब्ध उनकी तमाम गज़लों, नज़्मों और गीतों को इसमें इकट्ठा करने की कोशिश की गई है। उम्मीद है दर्द-पसन्द पाठकों को इसमें अपना वह खोया घर मिल जाएगा जो इधर की चमक-दमक में खो गया है एक ऐसे परिवार में पैदा होकर, जिसका शायरी और अदब से दूर-दूर तक कोई रिश्ता नहीं था, और एक ऐसे पिता का पुत्र होकर जिसके साथ उनके सम्बन्ध कभी पिता-पुत्र जैसे नहीं रहे और एक ऐसे समाज में जीकर जिसका सस्तापन, नाइंसाफी और संकीर्णताएँ उनकी उदास आँखों से बचकर निकल नहीं पाती थीं, उन्होंने वह कमाया जिसे भले ही उस वक्त के आलोचकों ने बहुत मान नहीं दिया, लेकिन जो आम आदमी की यादों में हमेशा के लिए पैठ गया। फिल्मों में आने से पहले ही वे अपने समय के सबसे लोकप्रिय और चहेते शायरों में शुमार हो चुके थे। साहिर की ऐसी कई नज़्में और गज़लें हैं, और गीत भी, जिनमें उन्होंने समाज की आलोचना दो-टूक लहजे में की है। प्रगतिशील आन्दोलन से जुड़े साहिर की चिन्ताओं में गाँव में भूख और अकाल से जूझ रहे किसानों के दुख से लेकर शहरों में भूख के हाथों बिकतीं-बेइज़्ज़त होतीं वेश्याओं तक का दर्द एक जैसी गहराई से आया है, जिसका मतलब यही है कि दुख को देखना, जीना और पकडऩा, शायर के रूप में यही उनका एकमात्र कौशल था, और इसी के विस्तार में उन्होंने हर माथे की हर सिलवट को पिरोकर तस्वीर बना दिया।

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  • Språk:
  • Hindi
  • ISBN:
  • 9788126729098
  • Format:
  • Inbunden
  • Sidor:
  • 434
  • Utgiven:
  • 31. augusti 2016
  • Mått:
  • 140x29x216 mm.
  • Vikt:
  • 699 g.
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Beskrivning av Sahir Samagra

यह किताब उनकी रचनाओं का समग्र है, अभी तक उपलब्ध उनकी तमाम गज़लों, नज़्मों और गीतों को इसमें इकट्ठा करने की कोशिश की गई है। उम्मीद है दर्द-पसन्द पाठकों को इसमें अपना वह खोया घर मिल जाएगा जो इधर की चमक-दमक में खो गया है एक ऐसे परिवार में पैदा होकर, जिसका शायरी और अदब से दूर-दूर तक कोई रिश्ता नहीं था, और एक ऐसे पिता का पुत्र होकर जिसके साथ उनके सम्बन्ध कभी पिता-पुत्र जैसे नहीं रहे और एक ऐसे समाज में जीकर जिसका सस्तापन, नाइंसाफी और संकीर्णताएँ उनकी उदास आँखों से बचकर निकल नहीं पाती थीं, उन्होंने वह कमाया जिसे भले ही उस वक्त के आलोचकों ने बहुत मान नहीं दिया, लेकिन जो आम आदमी की यादों में हमेशा के लिए पैठ गया। फिल्मों में आने से पहले ही वे अपने समय के सबसे लोकप्रिय और चहेते शायरों में शुमार हो चुके थे। साहिर की ऐसी कई नज़्में और गज़लें हैं, और गीत भी, जिनमें उन्होंने समाज की आलोचना दो-टूक लहजे में की है। प्रगतिशील आन्दोलन से जुड़े साहिर की चिन्ताओं में गाँव में भूख और अकाल से जूझ रहे किसानों के दुख से लेकर शहरों में भूख के हाथों बिकतीं-बेइज़्ज़त होतीं वेश्याओं तक का दर्द एक जैसी गहराई से आया है, जिसका मतलब यही है कि दुख को देखना, जीना और पकडऩा, शायर के रूप में यही उनका एकमात्र कौशल था, और इसी के विस्तार में उन्होंने हर माथे की हर सिलवट को पिरोकर तस्वीर बना दिया।

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